सोमवार, 6 मार्च 2017

अनुप्रिया के रेखांकन : बहती नदी की व्यथा

बिहार की कोसी नदी ​धार बदल -बदल बहती है.​पर्वतीय नदी की तरह खिलंदड़ ! सरपट बहती किनारों पर बसे गाँवों के मंडईयों , सूखते तालाबों को लीलती पसर जाती है.अनुप्रिया का बचपन इन्हीं गाँवों के इर्दगिर्द बीता है. घनेरे आम्रकुंज , बाँसवाड़ी, कस्बाई बाज़ार , ऊँघती गायें , और छप्पर पर टोकाटाकी करते कौव्वे से बतियाती अनुप्रिया के मानस में ज्यों स्मृतिलेख की तरह अचेतन दृश्य बिम्ब की तरह ' फ़्रिजशॉट ' होते गये.एक क़स्बा छूटना और पुनः स्त्री की परिधि में आगमन भले ही सामाजिक जीवन का शुभारम्भ हो , मगर मायके की स्मृतियाँ कहाँ छूटती हैं...!
कैशोर्य मन में शमित ऐसे सहस्त्रों दृश्यबिम्ब एकांत में कचोटते रहे . फिर अनुप्रिया को यह एकांत बहाने लगा , गृहस्थी को सँवारने सँभालने के बाद एक साधन ढूँढ लिया ...कोरा काग़ज़ और स्केच पेन .मन में बसी उथलपुथल करती आकृतियाँ उन काग़जों पर उतरने लगी .​तन्मय एकांत ,सरपट भागती दौड़ती रेखाओं का भँवर और श्यामवर्ण का मोह अद्भुत आकृतियाँ गढ़ने लगी . एक कस्बेनुमा शहर सुपौल की किशोरी देश के महानगर में चकाचौंध से बिना डरे , कुण्ठा में भींगे और इन रेखाओं के नेपथ्य में जादुई सम्मोहन की सहज भाषा दुहराये एक स्त्री के सहज मन को बौद्धिक बहस से अलग प्रकृति से जोड़ती रही हर रेखांकन में .​
यथार्थ बिम्बलोक कड़वाहट देता है, कलात्मक सृजन की पहली शर्त है कि कला सुखवादी हो. अनुप्रिया के रेखांकन में मूल ध्येय यह दृष्टिगत है.नर्तन करती रेखाओं में लोच है , श्लील वर्ण्यविषय बोझ नहीं लगती है और न भटकती हैं .प्रेक्षक का उन्मादित भाव से स्त्री को ग्रहण नहीं करता , बल्कि संपूर्ण रूप में स्त्री का साक्षात्कार करता है. चिड़ियों से बतियाती औरत , उगते सूर्य को निहारती हुई स्त्री , बोझों को उठाई औरत ....सचमुच एक औरत किस्से में बदल-बदल अवलोकक के समक्ष प्रस्तुत होती हैं.
भले ही इन सहज रेखांकन में भाऊ सामर्थ , कमलाक्ष शैने और अन्य परिवर्ती स्थापित रेखाचित्रकारों की भाषा जैसी संपुटित वाणी न मिले , किन्तु अनुप्रिया के निर्दोषता के सँग भटकाव नहीं देंती .कोसी नदी की तरह रेखाओं के भँवर में उभरी रेखाओं में कोई दुहराव नहीं है.सतत बहती रेखाओं के सँग एकवर्णी श्याम रँग वह सब व्यक्त करती हैं , जो कस्बे से छूटी औरत कंक्रीट के जँगल, जगमगाते मॉल, इतराती पड़ोस की औरतें और गुजरती घुर्राती बसों में ' अपनापन ' ढूँढती है.वास्तव में , पिछले दो दशकों में महानगरीय जीवनशैली की विद्रूपता के विरुद्ध इन सहज रेखांकन के माध्यम से गँवई स्वर की तीव्रता प्रदान की गयी है.
अवसाद से घिरी जीवनशैली में इन आकृतियों के अवलोकन से विस्मृत होती आसपास की उस दुनिया का पुनर्प्रक्षेपण है ,जिन्हें अब हम मन के किसी कोने में खोजते हैं. अनुप्रिया के रेखांकन में सामाजिक जीवन का दायित्वबोध है , इस रूप में रेखांकन को सर्जनात्मक तुष्टि मानकर आलोच्य दायित्व से मुक्त होना कठिन होगा.वास्तव में,इन सहज रेखाओं के वृत्त परिधि में उन लक्ष इच्छाओं के स्वर मुखरित हैं , जो संस्कृति के इस संकट वेला में उपेक्षित और अदृश्य भाव से पीछा कर रहे हैं निरंतर .रेखांकन का ध्येय स्पष्ट है, मूक ग्राम्य जीवन को पुनर्स्थापित कर रिक्त होते तालाबों में मंडराती गौरैयों को सहेजना , उगते-डूबते सूरज की लालिमा निहारने के लिये अवसर पाना और छाया खोजती औरतें से बतियाना ही अनुप्रिया के रेखांकन सन्देश नहीं देते --बल्कि मशीनों द्वारा रची गयी साजिशों का भेद खोलना भी है.अगर कभी बालकनी से झाँकती कोई औरत फिर कभी मिले , तो अनुप्रिया की आकृतियों में गढ़ी कोई स्त्री फुदक कर सामने आ जायेगी और यूँ कभी पूछे," यह शहर कैसा लगा, मेरे कस्बे जैसा या गुर्राती मेट्रो गुजरती में लदे-फदे लोग...!"
कोसी यूँ ही बहती रहेगी और हर साल बाढ़ आती रहेगी...!अनुप्रिया के रेखांकन भी हमारी स्मृतियों को कुरेदती रहेंगी .


शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

अभिव्यक्ति की आज़ादी और मर्यादित लेखन

उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बरकरार रखने वाला एक ऐतिहासिक फैसला दिया है। अपने इस फैसले के जरिए न्यायालय ने साइबर कानून की धारा 66 (ए) निरस्त कर दी है, जो सोशल मीडिया पर कथित अपमानजनक सामग्री डालने पर पुलिस को किसी भी शख्स को गिरफ्तार करने की असीमित शक्ति देती थी। न्यायमूर्ति जे. चेलामेश्वर और न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन की पीठ ने फैसला देते समय कहा कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 (ए) से लोगों के जानने का अधिकार सीधे तौर पर प्रभावित होता है। यह धारा संविधान में उल्लिखित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को प्रभावित करती है। इस तरह कानून की छात्रा श्रेया सिंघल की याचिका पर न्यायालय ने समाज और लोकतंत्र को एक बेहतर दिशा देने वाला फैसला दिया है। इसके लिए अभिव्यक्ति की पैरोकारी करने वालों को दोनों का शुक्रगुजार होना चाहिए।
सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम सन् 2000 में अस्तित्व में आया था तो करीब आठ साल बाद 2008 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन-एक की सरकार ने उसमें संशोधन किया। धारा 66 (ए) उसी संशोधन की देन थी। इसमें तीन साल तक की जेल और जुर्माने का प्रावधान था। उस समय चकित करने वाली बात यह थी कि संसद ने संशोधन के मसविदे को बिना बहस-मुबाहिसा के पारित कर दिया था। अधिनियम के अनुसार इंटरनेट अथवा सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक व आहत करने वाली सामग्री डालना अपराध था। इसकी आड़ में सरकार ने सैकड़ों वेबसाइटों को ब्लैक कर दिया। आने वाले समय में इसका परिणाम यह हुआ कि किसी भी बात को आहत पहुंचाने वाली बात कहकर पुलिस में शिकायत की जाने लगी। नेताओं अथवा रसूखदार लोगों की शिकायतें पहुंचते ही पुलिस अटेंशन की मुद्रा में आकर बिना किसी देरी के कथित आरोपियों को गिरफ्तार करने लगी। अनेक राज्यों में प्रशासन के खिलाफ टिप्पणी करने वालों को सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा। इनमें लेखक, चित्रकार, शिक्षक, व्यापारी से लेकर नाबालिग छात्र तक शामिल हैं।
इक्कीसवीं सदी के हिन्दुस्तान में भी इंटरनेट सेवियों की संख्या कम ही है। इसके बावजूद वह 20 करोड़ से अधिक बताए जाते हैं। उनके लिए सोशल मीडिया संवाद का एक बड़ा जरिया है। ऐसे में अगर उनकी हर गतिविधि पर कानून की तलवार लटकती रहे तो अभिव्यक्ति की आजादी का क्या होगा? यह सवाल पिछले कुछ समय से सोशल मीडिया की दुनिया में तैर रहा था। धारा 66 (ए) के तहत कायम किए जाने वाले अधिकांश मामले दरअसल नेताओं को खुश करने के लिए होते थे। इसकी बानगी कुछ घटनाओं पर नजर डालने से मिलती है। महाराष्ट्र में बाल ठाकरे के निधन पर शिवसेना के बन्द पर सवाल उठाते हुए पोस्ट लिखने वाली छात्रा शाहीन ढाडा व उसे लाइक करने वाली उसकी मित्र रीनू श्रीनिवासन को आनन-फानन में गिरफ्तार कर लिया गया था। इसी तरह केरल में प्रधनमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ फेसबुक पर टिप्पणी करने वाले राजीश कुमार को पकड़ने में देर नहीं लगी तो गोवा में मोदी के खिलाफ कमेन्ट लिखने वाले देवू छोडांकर को पुलिस ने सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने के आरोप में धर दबोचा।
सबसे अधिक चकित करने वाली घटना उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में घटी, जहां 11वीं के एक छात्र को प्रदेश के शहरी विकास मंत्री आजम खान के बारे में एक पोस्ट साझा करने के आरोप में पकड़ा गया है। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने प्रदेश की पुलिस से पूछा है कि किन हालात में इस छात्र को गिरफ्तार करने की नौबत आन पड़ी? सोशल मीडिया पर अपनी राय जाहिर करने वालों में से पकड़े गए लोगों की सूची लम्बी है। नेताओं के इशारे पर नाचने वाली पुलिस इन गिरफ्तारियों के जरिए वाहवाही लूटती है और उनकी नजर में अपने नम्बर बढ़ाती है। इन घटनाओं में कुछ मामले ऐसे भी थे जो सोशल साइट के जरिए दूसरे को बदनाम कर रहे थे। लेकिन पुलिस उन तत्वों को चिन्हित करने के बजाय धारा 66 (ए) की आड़ लेकर आनन-फानन में गिरफ्तारियां करती रही। यह एक तरह से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) का उल्लंघन है, जो देश के हर नागरिक को अभिव्यक्ति की आजादी देता है।
वैसे उच्चतम न्यायालय के फैसले को लेकर सोशल मीडिया में कुछ ज्यादा ही उत्साह देखने को मिला। काफी लोग धारा 66 (ए) निरस्त करने को व्यवस्था बदलाव के तौर पर पेश करते नजर आए। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। फैसले का मतलब यह बिल्कुल नहीं कि सोशल मीडिया पर कुछ भी लिखने की छूट मिल गई है और ऐसा करने पर किसी तरह की गिरफ्तारी नहीं होगी। ऐसा समझना हवा में पुल खड़ा करने के सिवाय कुछ नहीं है। धारा 66 (ए) को निरस्त करने के बाद अनेक धाराएं ऐसी हैं जिनसे सोशल मीडिया के अधिकतर सेवी अन्जान हैं या वह जानना नहीं चाहते हैं। उनकी जानकारी के लिए बताना उचित होगा कि मानहानि, भारतीय दंड संहिता की धारा 499, सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने पर लगने वाली धारा 153 (ए), धार्मिक भावनाएं आहत करने पर लगने वाली धारा 295 (ए), सीआरपीसी 95 (ए) एवं अश्लीलता संबंधी धारा 292 पहले की तरह अपनी जगह कायम है।
संसदीय विशेषाधिकार और अदालत की अवमानना के प्रावधान भी खत्म नहीं किए गए हैं। सबसे अहम बात यह कि संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आठ तरह की पाबंदी लगी है। एक तरह से संविधान में जहां भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रतिष्ठापित है वहीं उसके साथ-साथ युक्ति-युक्त निर्बंधन (Reasonable Restriction) भी उल्लिखित किए गए हैं। यानि एक हाथ से स्वतंत्रता दी गई है वहीं दूसरे हाथ से ले ली गई है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए ही सोशल मीडिया पर विचार व्यक्त करना होगा।
न्यायालय ने फैसला देते समय सूचना प्रौद्योगिकी के अन्य प्रावधानों जैसे धारा 69 (ए) व 79 को यह कहते हुए निरस्त नहीं किया कि ये धाराएं कुछ पाबंदियों के साथ लागू रह सकती हैं। धारा 69 (ए) किसी कम्प्यूटर संसाधन के जरिए किसी सूचना तक सार्वजनिक पहुंच को रोकने के लिए निर्देश जारी करने की शक्ति देती है वहीं धारा 79 में कुछ मामलों में मध्यवर्ती की जवाबदेही से छूट का प्रावधान करती है। इसलिए उत्साह में बहकने के बजाय समझदारी से काम करने की आवश्यकता है।
अगर ऐसा नहीं करेंगे तो अनेक प्रावधान ऐसे हैं जिनके जरिए आप सलाखों के पीछे होंगे। वैसे श्रेया सिंघल की याचिका पर न्यायालय का कहना था कि उन्हें आश्चर्य है कि अब तक इस धारा को किसी और ने चुनौती क्यों नहीं दी? इस संबंध में श्रेया का कहना है, ‘मैं एक विद्यार्थी हूं। इसलिए अपनी भावनाएं बताना चाहती हूं। अपने विचारों को व्यक्त करना रोजमर्रा का ही काम है। अगर विचारों पर रोक लगती रही तो हमारा समाज मूक हो जाएगा।’ नवम्बर 2012 में याचिका दायर करने वाली श्रेया कानूनी खानदान से आती हैं। उनके दादा एचआर गोखले कानून मंत्री रह चुके हैं। दादी सुनंदा भंडारे जस्टिस तो मां मनाली सिंघल उच्चतम न्यायालय में वकील हैं। शिक्षा पूरी करने के बाद श्रेया को भी वकील बनना है, जिसकी बानगी उन्होंने इस याचिका के जरिए पेश कर दी है।
मोदी सरकार अब भले ही न्यायालय के फैसले का सम्मान कर रही हो। बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करने की बात कह रही हो। सोशल मीडिया पर असहमतियों पर लगाम न कसने के पक्ष में राग अलाप रही हो। लेकिन न्यायालय में वह धारा 66 (ए) की संवैधानिक वैधता का बचाव कर रही थी। वह कह रही थी कि इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कुछ प्रक्रियाएं तय की जा सकती हैं कि सवालों के घेरे में आए कानून का दुरुपयोग नहीं किया जाएगा। वह खुद भी प्रावधान का दुरुपयोग नहीं करेगी। मगर सरकार की इन बातों को खारिज करते हुए न्यायालय ने कहा कि ‘सरकारें आती और जाती रहती हैं लेकिन धारा 66 (ए) सदा बनी रहेगी। मौजूदा सरकार अपनी उत्तरवर्ती सरकार के बारे में शपथ पत्र नहीं दे सकती कि वे उसका दुरुपयोग नहीं करेंगे।’ मजेदार बात यह है कि जब डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-एक सरकार ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम में संशोधन कर इस धारा को जोड़ा था तब भाजपा उसकी जमकर मुखालफत कर रही थी। उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री रहे मोदी भी इस धारा के खिलाफ मुखर थे। लेकिन सत्ता में आते ही वही भाजपा और उसके नेता मोदी उक्त धारा के बचाव में मुस्तैदी से खड़े हो गए। मोदी सरकार की दलीलों को खारिज करते हुए न्यायालय ने फैसला दिया है। इससे यह पता चलता है कि अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर भाजपा का रवैया कैसा है?
इस मामले में कांग्रेस भी अलग नहीं है। क्षेत्रीय दलों की बात ही क्या की जाए, जहां सबसे अधिक इसका दुरुपयोग हो रहा था। एक कहावत है कि ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस।’ एक तरह से धारा 66 (ए) नेताओं और पुलिस के हाथ की लाठी बनी थी। कानून में इसके जुड़ते ही नेता लपक पड़े। वह अपने खिलाफ लिखे गए हर एक शब्द पर काबू पाने के लिए इसका इस्तेमाल करने लगे। इसीलिए लेखक कंवल भारती ने जब रेत माफिया पर नकेल कसने वाली आईएएस दुर्गाशक्ति नागपाल को निलंबित करने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार की आलोचना की तो पुलिस ने उन्हें बनियान और पायजामे में ही घर से उठा लिया। जादवपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर अंबिकेश महापात्रा व उनके पड़ोसी सुब्रत सेन गुप्ता को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के कार्टून को प्रसारित करने पर धर लिया गया।
कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को संसद और राष्ट्रीय प्रतीकों का मजाक बनाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। उन्होंने यह सामग्री अपनी वेबसाइट व फेसबुक पेज पर शेयर की थी। प्रताड़ना और गिरफ्तारी के मामले बढ़ने व कुछ शिकायतें पहुंचने पर उच्चतम न्यायालय ने 16 मई 2013 को एक परामर्श जारी किया था, जिसमें कहा गया था कि सोशल नेटवर्किंग साइटों पर आपत्तिजनक टिप्पणियां पोस्ट करने के आरोपी किसी व्यक्ति को पुलिस आइजी अथवा डीसीपी जैसे सीनियर अफसरों से अनुमति लिए बिना गिरफ्तार नहीं कर सकती। लेकिन ऊपर गिनाए गए अधिकांश मामलों में पुलिस ने यह किया ही नहीं। एक तरह से उसने उच्चतम न्यायालय की अवमानना की। किसी भी बिन्दु को लेकर आलोचना एवं राजनीतिक असहमति को साइवर अपराध बताकर उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र से लेकर अनेक राज्यों में लोगों को गिरफ्तार किया गया।
इन राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें रही हैं। यानी अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर सभी दलों का रवैया कमोबेश एक जैसा रहा है। ऐसे में यह कहना उचित होगा कि अगर धारा 66 (ए) कायम रहती तो यह सिलसिला जारी रहता। न्यायालय के फैसले पर इसलिए भी गौर करना आवश्यक है कि कुछ दिनों से ऐसा लग रहा था कि वह क्या देखेंगे? क्या कहेंगे? कहां जा पाएंगे और क्या करेंगे, इस पर सरकारों अथवा उनके गिरोहों द्वारा फैसला लिया जा रहा है। इसके लिए उदाहरण के तौर पर प्रिया पिल्लई और निर्भया कांड पर बने वृत्तचित्र ‘इंडियाज डाटर’ नामक हालिया घटनाएं हमारे सामने हैं। इसी के साथ लेखक पेरुमल मुरुगन जैसे अनेक उदाहरण गिनाए जा सकते हैं।
मोदी सरकार की दलीलों पर उच्चतम न्यायालय का कहना था कि जो बात किसी को आपत्तिजनक या आक्रामक लग सकती है, वह किसी दूसरे को कहने लायक लग सकती है। उसे पसंद आ सकती है। अगर महज चिढ़ाने या आहत करने के आरोप में शिकंजा कसा जाएगा तो असहमति का इजहार करना असंभव हो जाएगा। ऐसे में अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब नहीं रह जाएगा। असल में इक्कीसवीं सदी में सोशल मीडिया अभिव्यक्ति के एक बड़े माध्यम के रूप में उभर रहा है। कुछ हद तक ही सही उससे सिविल सोसाइटी भी जुड़ रही है। लोकतांत्रिक आंदोलन मजबूत हो रहे हैं। इसने असहमति के स्वर को मजबूत किया है। इससे राजनीतिक दलों पर दबाव बढ़ रहा है। यही वजह है कि वह इससे डर रहे हैं।
सोशल मीडिया का एक दूसरा पहलू यह भी है कि उस पर गलत चीजें भी आ रही हैं। एक ऐसा तबका भी है जो उसका दुरुपयोग कर रहा है। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुए दंगों को लिया जा सकता है, जिसमें उक्त तबके ने सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हुए दंगों को भड़काने का काम किया था। इसी तरह पिछले सालों में लखनऊ में हुए दंगों अथवा दिल्ली के त्रिलोकपुरी और बवाना में होने वाली साम्प्रदायिक हिंसा में भी इसका गलत इस्तेमाल किया गया। दीमापुर रेप कांड की फोटो तक वायरल कर दी गईं। सोशल मीडिया के जरिए चरित्र हनन करने वाली तथाकथित प्रगतिशील जमात ने खुर्शीद अनवर जैसे स्कालर हमसे छीन लिए। इस तरह अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में गलत बयानी करने, अफवाह फैलाने और चरित्र हनन करने का काम भी कुछ तत्वों की ओर से किया जाता रहा है।
इन घटनाओं को गिनाने का यह मतलब बिल्कुल नहीं कि हम सोशल मीडिया पर नियंत्रण की पैरवी कर रहे हैं लेकिन आत्म नियंत्रण तो करना ही होगा। असल में हिन्दुस्तान के ढांचे में लोगों को अधिकार और सीमाएं मिली हैं। लोग अधिकार मिलते ही चौड़े होने लगते हैं। वह सीमाएं भूल जाते हैं। लेकिन सीमाएं भूलना खतरे से खाली नहीं है। उन लोगों के लिए खासकर जो खुर्शीद अनवर के मामले की तरह बंद कमरे में किसी के भी चरित्र के बारे में कुछ भी लिखने में संकोच नहीं करते हैं। ऐसे लोगों के लिए कानून की जानकारी न होना महज बचाव नहीं है। ध्यान रखिए विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी असीमित नहीं है। सब कुछ कानून और संविधान के दायरे में है। इसलिए कुछ भी लिखने से पहले दिमाग पर जोर डाल लेना बेहतर है। लिखिए अवश्य, पर जोखिम को समझते हुए।

सोमवार, 13 अप्रैल 2015

बाजलि बैरनि रे बाँसुरिया - BhojpuriKa

बाजलि बैरनि रे बाँसुरिया - BhojpuriKa

बाजलि बैरनि रे बाँसुरिया,
टूटल सिवसंकर के ध्यान,
केथुवा चढ़ल सिवसंकर आवें,
केथुवा चढ़ल भगवान,
बाजलि बैरनि रे बाँसुरिया…!

मंगलवार, 27 जनवरी 2015


बिहार के लोकगीतों में नारी संवेदना का स्वर छोटे लाल गुप्ता -------------------------------------------------------------------------------- लोकगीत सामान्य लोगों का वह संवेदनात्मक स्वर है, जिसके अन्दर उनकी संस्कृति, सभ्यता, आस्था, विश्वास, हर्ष-विषाद आदि की झंकृति विद्यमान रहती है। इसलिए किसी भी क्षेत्र के मानव जन-जीवन की वास्तविक स्थिति जानने के लिए वहाँ के लोकगीतों का अध्ययन-विश्लेषण बहुत ही महत्त्वपूर्ण हो जाता है। बिहार के लेकगीतों के अध्ययन से यह पता चलता है कि इनमें मुख्यतः नारी-भावनाओं एवं नारी-समस्याओं का चित्रण हुआ है। इसका प्रधान कारण यह है कि लोकगीत अधिकांशतः नारियों के पास ही सुरक्षित हैं। वे ही इन्हें जीवित, प्राणवंत एवं मुखर बनाए रहती हैं। वे ही इन्हें विभिन्न अवसरों पर अपने कोमल कंठों से गाती रही हैं। अतएव यह स्वाभाविक है कि नारियों द्वारा सुरक्षित एवं प्रयुक्त लोकगीतों में उनकी अंतरात्मा की आवाज़, भावनाएँ एवं समस्याएँ फूट पड़ी हैं। नारी का संपूर्ण जीवन ही गीतमय होता है। वे प्रसन्नता के आवेग में भी गीत गाती हैं और दुःख की घड़ी में भी। लोकगीत में प्रचलित सोहर, मुंडन, जनेऊ, विवाह, गौना, झूमर, कजली, होली, छठीमाता, श्यामा-चकेवा, बारहमासा, चैती, जाँता, रोपनी, सोहनी आदि से संबंधित लगभग सारे गीत नारियों के द्वारा ही गाए जाते हैं। फलस्वरूप, इन गीतों में कहीं उनकी हीन सामाजिक स्थिति, कहीं विवाह न होने और दहेज की समस्या, कहीं उनके साथ सास, ननद, देवर आदि का निष्ठुर व्यवहार, कहीं पति की उपेक्षा और वियोग दुःख, कहीं ईश्वर से करुणा विगलित पुकार आदि भावनाएँ फूट पड़ी हैं। दहेज के कारण समाज में नारी के प्रति कितना उपेक्षा भाव है- इसे निम्नांकित उदाहरण में देखा जा सकता है- गईया-भहिसिया बेटी हे द्वारक शृंगार थिके तहूँ बेटी जीव के जंजाल थिकह है। एहन समाज पर बज्जर खसेवै, तिलक प्रथा पर अगिया लगैवे। पुत्री विवाह की पेरशानी पिता को सताती है ही, साथ ही, संपूर्ण परिवार भी आर्थिक विपन्नता को झेलती है। सच मायने में हमारे पुरुष प्रधान समाज में नारियों को बहुत दुःख झेलना पड़ता है। जन्म से उसकी उपेक्षा की जाती है। पुत्री पैदा होते ही सारा परिवार दुःखी हो जाता है। युवावस्था के आते-आते माता-पिता को उनके विवाह की चिंता सताती है और कई बार उनके आक्रोश को झेलना पड़ता है उस अबोध बालिका को। साथ ही, पुरुषों की भोगवादी या वासनात्मक दृष्टि भी उसे पेरशान किए रहती है। परिणामतः वह अजीव कुंठा एवं संत्रास को भोगती रहती हैं। पेरशान होकर उसे कभी ऐसे परिवार में ढकेल दिया जाता है, जहाँ सुख सपना हो जाता है। अपने माता-पिता, भाई-बहन से बिछुड़ने का दुःख अभी भुला भी नहीं पाती है कि सास-ननद के विष-वाण से देह छलनी होने लगती है। आर्थिक पेरशानी से विवश होकर यदि पति नौकरी करने परदेश चला जाता है तो घर का एकाकी जीवन और भी काटने जैसा लगता है। एक ओर युवावस्था का मस्ती भरा मन और दूसरी ओर पति वियोग ऐसे में न तो वर्षा की रिम-झिम अच्छी लगती है और न राका-निशा ही- "बाँध बनाए गैले, पोखरी खुनाई गैले, पिया परदेश गइले, सिंदुर सपना भइले।" "पिया परदेश गेले, हमरा के दुःख भेले, दिन-रात परे मोरा गारी हे सखिया।" यदि दो-चार वर्षों के वैवाहिक जीवन के बावजूद पुत्र-रत्न की प्राप्ति नहीं हुई तो सारा परिवार उसे वंध्या मानकर अनेक तरह से सताने लगता है। इस तरह उसका संपूर्ण जीवन ही विडंबना और दुर्भाग्य के अश्रु से सिक्त होता रहता है। इतनी करुणा-विषाद इन गीतों में है जिसे पढ़-सुनकर हृदय द्रवित हुए बिना रह नहीं पाता- "सबके दौरिया हो दीनानाथ लिहलें मँगाय, बाँझिनी के दौरिया हो दीनानाथ बैठल झमाय।" "एकये पुत्र बिना हो दीनानाथ सैरा छै अन्हार, सासु पढ़े गरिया हो दीनानाथ ननदी चीरे गाल, गोतनी के बोलिया हो दीनानाथ सहलो न जाय, हमारो प्रभु के बोलिया हो दीनानाथ, सेहो कुबोलकृ।" नारी भावनाओं की जीवंत अभिव्यक्ति में स्पष्ट रूप से कहीं हर्ष की खिलखिलाहट है तो कहीं विषाद के आँसू। पुत्र-प्राप्ति का मांगलिक क्षण हो या विवाह का आह्लादिक प्रसंग, जनेऊ का अवसर हो या पिया-मिलन की बेला- नारियाँ इन क्षणों में अपनी भावना को रोक नहीं पाती हैं और गीत के रूप में अपने कोमल कंठों से खुशी को व्यक्त कर ही देती हैं- ललना लेहूँ सा लालकी बधाईया जवन मन भावत होकृ। इन गीत में जहाँ एक ओर आनंद एवं उछाह के चित्र मिलते हैं, वहीं दूसरी ओर करुणा एवं दर्द के अनेक कारुणिक प्रसंग भी। पुत्री की विदाई की कारुणिक बेला हो या पति-वियोग का दुःख, वैधव्य का कष्ट हो या पुत्रहीनता का दुःख- ये सारे प्रसंग जीवन में दुःखदायी ही होते हैं। इन प्रसंगों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति तो देखिए- "आज जनकपुर सूना भेले सखिया हे, सियाजी चलली ससुरार" "बाईस बरस बीतेय हमरा, सुनियौ कृपानिधान यौ, निर्धन के बेटी बनि जग में, कतेक सहब अपमान यौ।" विवेच्य लोकगीतों में जितनी आंतरिक भावनाओं का प्रस्फुटन देखने को मिलता है, उतनी बाह्या प्रकृति या समस्याओं का चित्रण नहीं। कहीं पुत्र-प्राप्ति की लालसा तो कहीं पिया मिलन की आकांक्षा, कहीं ईश्वर से संकट निवारण की करुण प्रार्थना तो कहीं दीर्घायु या संपन्नता के लिए निवेदन- ये सारे प्रसंग आंतरिक भावनाओं को ही स्वाभाविक अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। इन गीतों में पिया मिलन की आकांक्षा का कितना भावात्मक चित्रण है- "कासे न कहा जात, निंदिया न आबे रात, विरहा सतावे गात, श्याम न घंरबा।" "गरजे, बरसे बदरवा, पिया बिनु मोहे न सुहाय।" पुत्र-प्राप्ति की आकांक्षा का कितना स्वाभाविक और दर्दनाक भाव इन पंक्तियों में देखने को मिलता है- "एकये पुत्र बिना हो दीनानाथ, सैरा छै अन्हार, सासु पढ़े गरिया हो दीनानाथ, ननदी चीरे गाल।" दुर्दिन या संकट की बेला में जहाँ संकट निवारण के लिए प्रार्थना की जाती है वहीं दीर्घायु या संपन्नता के लिए याचना का स्वर भी कम कातर नहीं होता- "हमरा केवल भरोसा एक बजरंगबली के, बजरंगबली के हो पवन सुत केकृ।" "कखन हरब दुःख मोर हे भोला दानी, कखन हरब दुःख मोर।" अध्येय लोकगीतों में जो भी सामाजिक समस्याएँ आई हैं, उनमें नारी की हीन सामाजिक स्थिति, दहेज-प्रथा तथा सास-ननद का निष्ठुर व्यवहार ही प्रमुख है। सीता जी के ब्याह के समय माता कहती हैं- "कहथिन सीता सुनु ओ बाबा बचन हमार यो, जिनका आँगन बाबा बेटी कुमार से हो केना सुतल निचित यो।" "अन्नधन, संपत्ति बेटी द्वारा शृंगार थिके, तहूँ बेटी जीव के जंजाल थिकह...हे।" इन लोकगीतों में भारतीय संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता भी स्पष्ट होती है। वह है नारी-चरित्र की दृढ़ता। किसी भी लोकगीतों में नारी को मर्यादा, शील या चरित्र की दृष्टि सक गिरते हुए नहीं पाया गया है। नारी हमेशा शील और मर्यादा के लिए अपने वैयक्तिक सुख को सामाजिक सुख के नाम पर अर्पित करती रही है। पति वियोग के दुःख को नहीं सहन करने पर वह आँसू भले बहा ले, परिवार की प्रतिकूल परिस्थिति पर गम का घूँट भले ही पी ले, पर वह परिवार की मर्यादा के उच्चासन से कभी नीचे नहीं उतर सकती। कोई रुपए-पैसे या जेवरों का लोभ दे या सुखमय भविष्य का सपना दिखाए, वह किसी कीमत पर पुरुष के सामने आत्म-समर्पण नहीं कर सकती- "चलुचलु आहे सुगिया हमरो नगरिया, बैठले खियेबौ गे सुगिया, दूध, भात कटोरिया।" "लेहो-लेहो डाला भरि सोनमा कि डाला भरि रूपा लेहो हे, सुंदरि हे छोड़ी परदेशिया के आस बटोहिया के साथ चलही हे। अगिया लगेबौ डाला भरि सोनमा कि डाला भरि रूपवा में रे, अगिया लगेबौ बटोहिया के साथ कि परदेशियाँ के आस मोरा हे...। शिव-पार्वती, राम-सीता, दुर्गा-काली, सूर्य-चंद्र, हनुमान जैसे भक्तवत्सल अनेक देवी-देवता हैं, जो इन लोकगीतों के प्रयोक्ताओं की नस-नस में बसे हुए हैं। लोगों का संपूर्ण जीवन ही देवतामय और व्रतमय होता है। दैहिक या आर्थिक परेशानी जो भी हो गुहार, देवी-देवता की ही होगी- कखन हरब दुःख मोर हे भोला दानी... कखन हरब। दुःखहि जनम भेल, दुःखहि गमावल सुख सपनेहूँ नहि भेल...। मुझमें अवगुण अनेकों हजार है, पर महिमा भी तेरी अपार है, जरा ताको तो बेरा पार है, विनय तुझे बार-बार है...। जहाँ भी शृंगारिक वातावरण हो, पुरुष कृष्ण बन जाता है और नारी राधा। विवाह के लिए भी लोक जनक नगरी ही जाते हैं और वर-वधू राम और सीता के रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं- "भला कान्हा हो, जनि मारो पिचकारी" हाँ-हाँ करत मारत पिचकारी, मानत नाहिं मुरारी, जो एक बूँद पड़ी मुख ऊपर, दैहों हजारन गारी...। राधा-कृष्ण के सुंदर जोड़ी, गावत दै दै तारी। "अवध नगरिया से चलल बरतिया, आहो रंग पियरे-पियरे जनक नगरिया भइले शोर, आहो रंग पियरे-पियरे।" कहीं पुरुष-नारी का मिलन मन में आनंद का संचार करता है तो कहीं प्रकृति का मनोरम चित्र मन को गुदगुदाता है। पुरुष-नारी का शाश्वत-प्रेम जहाँ एक ओर व्यक्तिगत जीवन में आनंद का संचार करता है, वहीं दूसरी ओर समाज में उल्लास का सृजन भी करता है। कभी राधा-कृष्ण तो कभी सीता-राम के रूप में युवक-युवतियाँ अपनी मादक भावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं और जीवन में नूतनता लाते हैं- राधा तू हे दामिनी दमन रही हे कदम वृक्ष, उंमुक्त गगन झूला हे पवन दुति, झूल रहीं। झूला लागे कदम की डारी, झूले कृष्ण मुरारी ना...। राधा झूले, श्याम झुलावे, पारा पारी ना...। युवावस्था ऐसी होती है, जिसमें मस्ती और उमंग की भावना अधिक रहती है। प्रकृति का मनोरम वातावरण जहाँ मन में मादक भावनाओं एवं कामनाओं को उद्दीप्त करता है, वहीं दूसरी ओर प्रसन्नता की झलक गीत के रूप में फूट पड़ती है और सारा वातावरण उस खुशबू से महक उठता है। जवानी का वय और प्रकृति का मनोरम शंगारिक वातावरण- जब दोनों एक साथ हो जाएँ तो, फिर क्या कहना? इन पंक्तियों में राधा-कृष्ण की जोड़ी के माध्यम के भावनाओं का कितना सुंदर अंकन हुआ है- राधा झूले श्याम छुलावे पारा-पारी ना, चारो दिशि से घिरी बदरिया, काली-काली ना...। सावन उपवन के वन फूले, झूला झूले नंद किशोर कदम डार में लगा हिडोला, गरजत नभ घनघोर बरसा फुहार बहे शीतल बयरिया, सावन मोहक छवि मोह लिया री, देखे चलु मोरी सखिया...। व्यक्ति की कोमल भाव-प्रवण एवं सुख-दुःखमिश्रित भावनाओं के अलावा पारिवारिक टूटते-जुड़ते रिश्ते-नाते एवं सामाजिक सहयोग का बड़ा ही स्वाभाविक चित्र रहे हैं, पारिवारिक रिश्ते आर्थिक परेशानियों के कारण दिन-प्रतिदिन बिखरते जा रहे हैं। व्यक्ति के जीवन की आकांक्षा, कामना एवं भावना की पूर्ति नहीं होने के कारण हैं। व्यक्ति के जीवन की आकांक्षा, कामना एवं भावना की पूर्ति नहीं होने के कारण अनेक उलझनों का जन्म हो रहा है। सेजवा लगेगा उदास, पिया तोहरे बिना ना, हमसे रहलो नहीं जात, लोगवा रोज लगावे घात, कैसे अपनी इज्जतिया वचायव सखिया ना...। विवेच्य लोकगीतों की परिधि में जहाँ मुख्य रूप से व्यक्ति और समाज की समस्याएँ एवं विशेषताएँ हुई हैं वहीं राष्ट्रीय उत्थान की महान कामना भी अभिव्यक्त हुई है। व्यक्ति केवल अपनी हित कामना ही नहीं चाहता, वरन् देश के लिए भी सोचता है; और जहाँ राष्ट्र की सोच है, वहाँ राष्ट्रभाषा स्वतः प्रस्फुटित हो जाती है- "बढ़ेगी उपज मेरी खाद पटाने से, मिटेगी गरीबी मेरा अन्न उपजाने से।।" मील का कपड़ा छोड़ो बड़ी बरबादी रे, खादी का कपड़ा पहनो पायी आजादी रे, खादी मिलेगी भैया चरखा चलाने से।। एक ओर जहाँ राष्ट्र-कल्याण की कामना देखने को मिलती है वहीं दूसरी ओर समाज-कल्याण की भावना भी। समाज में सबका हित हो, सब आनंद से रहें, चाहे वे ऊँच हों या नीच, बड़ा या छोटा, अमीर हों या गरीब, सामाजिकता एवं सामान्य हित की कामना का कितना सुंदर चित्र है- सदा आनंद रहे एहि द्वारे, मोहन खेल होरी हो मोहन खेले होरी हो लाला, मोहन खेले होरी हो। इस तरह, इन लोकगीतों का कैनवास बहुत बड़ा है। इनमें व्यक्तिगत सुख-दुःख, इच्छा-आकांक्षा के चित्रण के साथ-साथ पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन की भी झलक देखने को मिलती रहती है। लोकगीतों में जीवन के प्रति अनासक्ति एवं मृत्यु के बाद की दुनिया के प्रति चिंता का भाव प्रकट होता दिखता है। जीवन में वह एक क्षण भी आ जाता है, जब शरीर की शक्ति चूक जाती है, सांसारिक आकर्षण सारे टूट जाते हैं और मनुष्य सारे आकर्षणों से विलग होकर दुनिया के बारे में सोचने लगता है। इन लोकगीतों के आधार पर जिस धर्म या संस्कृति का रूप सामने आता है, वह भारतीय हिन्दू धर्म या भारतीय हिन्दू संस्कृति है। हिन्दू धर्म की सारी रूढ़िवादिता एवं विश्वास इन गीतों में गूँजता है। चेचक हो या महामारी, कष्ट हो या पेरशानी, लोग हिन्दू संस्कृति के अनुरूप ही देवी-देवताओं की अभ्यर्थना के द्वारा कष्टों के निवरण का प्रयास करते दिखते हैं। विवेच्य लोकगीतों में अभिव्यक्त नारी ऐसी दीपशिखा की भाँति है, जो भारतीय संस्कृति के मंदिर में अनवरत एवं शील की दीप्ति भी है, सबसे बढ़कर उनमें त्याग एवं बलिदान की नीरव आकांक्षा के साथ-साथ कष्टों को झेल लेने का अपार साहस भी है। शिल्प की दृष्टि से इन लोकगीतों की यह विशिष्टता स्पष्ट है कि इनमें नाटकीय संवाद-पद्धति को अधिकाधिक अपनाया गया है। दो पात्रों के बीच प्रश्नोत्तरी शैली चलती है और गीत आगे बढ़ता जाता है- "किनकर हाथ कनक पिचकारी, किनकर हाथ अबीर झोरी, कृष्ण के हाथ कनक पिचकारी, राधा के हाथ अबीर झोरी।" "कौन काठ के बने हिंडोला, कथी केर डोरी ना। चंदन काठ के बने हिंडोला, रेशम डोरी ना...। इस तरह यह शैली इतनी प्रमुख है कि लगभग नब्बे प्रतिशत गीत इसी तरह वार्तालाप या प्रश्नोत्तर युक्त हैं। कहीं पात्रों के साथ वार्तालात चलता है तो कहीं अप्रत्यक्ष या काल्पनिक पात्रों के साथ।बहुत से गीत ऐसे भी हैं, जो हर अंचल में पाए जाते हैं। जिन्हें लोगों ने अपनी-अपनी भाषा के अनुरूप ढाल लिए हैं। मानव जीवन में रसी-बसी संस्कृति, संवेदना, अनुभूति, विश्वास, आशा-आकांक्षा आदि का बड़ा ही सरल और सफल चित्र जिले के हर अंचल के लोकगीतों में देखने को मिलते हैं। छोटे लाल गुप्ता, शोध-छात्र जयप्रकाश विश्वविद्यालय छपरा (बिहार) मो.न.-9085210732"